आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री और उसकी प्राण प्रक्रिया गायत्री और उसकी प्राण प्रक्रियाश्रीराम शर्मा आचार्य
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गायत्री और उसकी प्राण प्रक्रिया
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
गायत्री और उसकी प्राण-प्रक्रिया
गायत्री द्वारा प्राण शक्ति का अभिवर्धन
गायत्री मंत्र के शब्दार्थ से प्रकट है कि यह मनुष्य में सन्निहिति
प्राणतत्त्व का अभिवर्धन, उन्नयन करने की विद्या है।
‘गय’
अर्थात् प्राण। ‘त्री’ अर्थात् त्राण करने वाली जो
प्राणों का
परित्राण, उद्धार संरक्षण करें वह गायत्री। मंत्र शब्द का अर्थ-मनन,
विज्ञान, विद्या, विचार होता है। गायत्री मंत्र अर्थात् प्राणों का
परित्राण करने की विद्या।
गायत्री मंत्र का दूसरा नाम ‘तारक तंत्र’ भी है। साधना ग्रन्थों में उसका उल्लेख तारक तंत्र के नाम से भी हुआ है। तारक अर्थात् पार कर देने वाला। तैरा कर पार निकाल देने वाला। गहरे जल प्रवाह को पार करके निकल जाने को-डूबते हुए बचा लेने को तारना कहते हैं। यह भवसागर ऐसा ही है, जिसमें अधिकांश जीव डूबते हैं। तरते तो कोई विरले हैं।
जिस साधन से तरना संभव हो सके उसे ‘तारक’ कहा जाएगा। गायत्री मंत्र में यह सामर्थ्य है उसी से उसे ‘तारक मंत्र’ कहा जाता है।
प्राण-शक्ति की न्यूनता होने पर प्राणी समुचित पराक्रम कर सकने में असमर्थ रहता है और उसे अधूरी मंजिल में ही निराश एवं असफल हो जाना पड़ता है। क्या भौतिक, क्या आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में अभीष्ट सफलता के लिए आवश्यक सामर्थ्य की जरूरत पड़ती है। इसके बिना प्रयोजन को पूर्ण कर सकना, लक्ष्य को प्राप्त कर सकना असंभव है। इसलिए कोई महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिए आवश्यक साधन जुटाना आवश्यक होता है। कहना न होगा कि भौतिक उपकरणों की अपेक्षा व्यक्तिगत की प्रखरता एवं ओजस्विता कहीं अधिक आवश्यक है।
गायत्री का उपयोग करने के लिए भी शौर्य, साहस और सन्तुलन चाहिए। बढ़िया बन्दूक हाथ में है, पर मन में भीरुता, घबराहट भरी रहे तो वह बेचारी बन्दूक क्या करेगी। चलेगी ही नहीं, चल भी गई तो निशाना ठीक नहीं लगेगा, दुश्मन सहज ही उससे इस बन्दूक को छीन कर उल्टा आक्रमण कर बैठेगा। इसके विपरीत साहसी लोग छत पर पड़ी ईंटों से और लाठियों से डाकुओं का मुकाबला कर लेते हैं। साहस वालों की ईश्वर सहायता करता है, यह उक्ति निरर्थक नहीं है। सच तो यही है कि समस्त सफलताओं के मूल प्राण में प्राण-शक्ति ही साहस, जीवट, दृढ़ता, लगन, तत्परता की प्रमुख भूमिका सम्पादन करती है और यह सभी विभूतियाँ प्राण-शक्ति की सहचरी हैं।
प्राण ही वह तेज है जो दीपक के तेल की तरह मनुष्य के नेत्रों में, वाणी में, गतिविधयों में, भाव-भंगिमाओं में, बुद्धि में, विचारों में प्रकाश बन कर चमकता है- मानव जीवन की वास्तविक शक्ति यही है। इस एक ही विशेषता के होने पर अन्यान्य अनुकूलताएँ तथा सुविधाएँ स्वयमेव उत्पन्न, एकत्रित एवं आकर्षित होती चली जाती है। जिसके पास यह विभूति नहीं उस दुर्बल व्यक्तित्व वाले सम्पत्तियों को दूसरे बलवान् लोग अपहरण कर ले जाते हैं। घोड़ा अनाड़ी सवार को पटक देता है। कमजोर की सम्पदा, जर, जोरू, जमीन दूसरे के अधिकार में चली जाती है।
जिसमें संरक्षण की सामर्थ्य नहीं वह उपार्जित सम्पदाओं को भी अपने पास बनाये नहीं रख सकता। विभूतियाँ दुर्बल के पास नहीं रहती। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए विचारशील लोगों को अपनी समर्थता-प्राण-शक्ति बनाये रखने तथा बढ़ाने के लिए भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रयत्न करने पड़ते हैं। आध्यात्मिक प्रयत्नों में प्राण-शक्ति के अभिवर्धन की सर्वोच्च प्रक्रिया गायत्री उपासना को माना गया है। उसका नामकरण इसी आधार पर हुआ है।
शरीर में प्राण-शक्ति ही नीरोगिता, दीर्घजीवन, पुष्टि एवं लावण्य के रूप में चमकती है। मन में वहीं बुद्धिमता, मेधा, प्रज्ञा के रूप में प्रतिष्ठित रहती है। शौर्य, साहस, निष्ठा, दृढ़ता, लगन, संयम, सहृदयता, सज्जनता, दूरदर्शिता एवं विवेकशीलता के रूप व प्राण-शक्ति की ही स्थिति आँकी जाती है। व्यक्तित्व की समग्र तेजस्विता का आधार यह प्राण ही हैं, शास्त्रकारों ने इसकी महिमा को कण्ठ से गाया है और जन-साधारण को इस सृष्टि की सर्वोत्तम प्रखरता का परिचय कराते हुए बताया है कि वे भूले न रहें, इस शक्ति-स्रोत्र को, इस भाण्डागार को ध्यान में रखें और यदि जीवन लक्ष्य में सफलता प्राप्त करनी हो तो इस तत्त्व को उपार्जित, विकसित करने का प्रयत्न करें।
प्राणवान् बनें और अपनी विभिन्न शक्तियों में प्रखरता उत्पन्न होने के कारण पग-पग पर अद्भुत सफलताएँ-सिद्धियाँ मिलने का चमत्कार देखें। प्राण की न्यूनता ही समस्त विपत्तियों का, अभावों और शोक-सन्तापों का कारण है। दुर्बल पर हर दिशा में आक्रमण होता है। दैव भी दुर्बल का घातक होता है। भाग्य भी उसका साथ नहीं देता। मृत-लाश पर जैसे चील, कौए दौड़ पड़ते हैं, वैसे ही हीनसत्व मनुष्य पर विपत्तियाँ टूट पड़ती हैं। इसलिए हर बुद्धिमान को प्राण का आश्रय लेना ही चाहिए।
गायत्री मंत्र का दूसरा नाम ‘तारक तंत्र’ भी है। साधना ग्रन्थों में उसका उल्लेख तारक तंत्र के नाम से भी हुआ है। तारक अर्थात् पार कर देने वाला। तैरा कर पार निकाल देने वाला। गहरे जल प्रवाह को पार करके निकल जाने को-डूबते हुए बचा लेने को तारना कहते हैं। यह भवसागर ऐसा ही है, जिसमें अधिकांश जीव डूबते हैं। तरते तो कोई विरले हैं।
जिस साधन से तरना संभव हो सके उसे ‘तारक’ कहा जाएगा। गायत्री मंत्र में यह सामर्थ्य है उसी से उसे ‘तारक मंत्र’ कहा जाता है।
प्राण-शक्ति की न्यूनता होने पर प्राणी समुचित पराक्रम कर सकने में असमर्थ रहता है और उसे अधूरी मंजिल में ही निराश एवं असफल हो जाना पड़ता है। क्या भौतिक, क्या आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में अभीष्ट सफलता के लिए आवश्यक सामर्थ्य की जरूरत पड़ती है। इसके बिना प्रयोजन को पूर्ण कर सकना, लक्ष्य को प्राप्त कर सकना असंभव है। इसलिए कोई महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिए आवश्यक साधन जुटाना आवश्यक होता है। कहना न होगा कि भौतिक उपकरणों की अपेक्षा व्यक्तिगत की प्रखरता एवं ओजस्विता कहीं अधिक आवश्यक है।
गायत्री का उपयोग करने के लिए भी शौर्य, साहस और सन्तुलन चाहिए। बढ़िया बन्दूक हाथ में है, पर मन में भीरुता, घबराहट भरी रहे तो वह बेचारी बन्दूक क्या करेगी। चलेगी ही नहीं, चल भी गई तो निशाना ठीक नहीं लगेगा, दुश्मन सहज ही उससे इस बन्दूक को छीन कर उल्टा आक्रमण कर बैठेगा। इसके विपरीत साहसी लोग छत पर पड़ी ईंटों से और लाठियों से डाकुओं का मुकाबला कर लेते हैं। साहस वालों की ईश्वर सहायता करता है, यह उक्ति निरर्थक नहीं है। सच तो यही है कि समस्त सफलताओं के मूल प्राण में प्राण-शक्ति ही साहस, जीवट, दृढ़ता, लगन, तत्परता की प्रमुख भूमिका सम्पादन करती है और यह सभी विभूतियाँ प्राण-शक्ति की सहचरी हैं।
प्राण ही वह तेज है जो दीपक के तेल की तरह मनुष्य के नेत्रों में, वाणी में, गतिविधयों में, भाव-भंगिमाओं में, बुद्धि में, विचारों में प्रकाश बन कर चमकता है- मानव जीवन की वास्तविक शक्ति यही है। इस एक ही विशेषता के होने पर अन्यान्य अनुकूलताएँ तथा सुविधाएँ स्वयमेव उत्पन्न, एकत्रित एवं आकर्षित होती चली जाती है। जिसके पास यह विभूति नहीं उस दुर्बल व्यक्तित्व वाले सम्पत्तियों को दूसरे बलवान् लोग अपहरण कर ले जाते हैं। घोड़ा अनाड़ी सवार को पटक देता है। कमजोर की सम्पदा, जर, जोरू, जमीन दूसरे के अधिकार में चली जाती है।
जिसमें संरक्षण की सामर्थ्य नहीं वह उपार्जित सम्पदाओं को भी अपने पास बनाये नहीं रख सकता। विभूतियाँ दुर्बल के पास नहीं रहती। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए विचारशील लोगों को अपनी समर्थता-प्राण-शक्ति बनाये रखने तथा बढ़ाने के लिए भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रयत्न करने पड़ते हैं। आध्यात्मिक प्रयत्नों में प्राण-शक्ति के अभिवर्धन की सर्वोच्च प्रक्रिया गायत्री उपासना को माना गया है। उसका नामकरण इसी आधार पर हुआ है।
शरीर में प्राण-शक्ति ही नीरोगिता, दीर्घजीवन, पुष्टि एवं लावण्य के रूप में चमकती है। मन में वहीं बुद्धिमता, मेधा, प्रज्ञा के रूप में प्रतिष्ठित रहती है। शौर्य, साहस, निष्ठा, दृढ़ता, लगन, संयम, सहृदयता, सज्जनता, दूरदर्शिता एवं विवेकशीलता के रूप व प्राण-शक्ति की ही स्थिति आँकी जाती है। व्यक्तित्व की समग्र तेजस्विता का आधार यह प्राण ही हैं, शास्त्रकारों ने इसकी महिमा को कण्ठ से गाया है और जन-साधारण को इस सृष्टि की सर्वोत्तम प्रखरता का परिचय कराते हुए बताया है कि वे भूले न रहें, इस शक्ति-स्रोत्र को, इस भाण्डागार को ध्यान में रखें और यदि जीवन लक्ष्य में सफलता प्राप्त करनी हो तो इस तत्त्व को उपार्जित, विकसित करने का प्रयत्न करें।
प्राणवान् बनें और अपनी विभिन्न शक्तियों में प्रखरता उत्पन्न होने के कारण पग-पग पर अद्भुत सफलताएँ-सिद्धियाँ मिलने का चमत्कार देखें। प्राण की न्यूनता ही समस्त विपत्तियों का, अभावों और शोक-सन्तापों का कारण है। दुर्बल पर हर दिशा में आक्रमण होता है। दैव भी दुर्बल का घातक होता है। भाग्य भी उसका साथ नहीं देता। मृत-लाश पर जैसे चील, कौए दौड़ पड़ते हैं, वैसे ही हीनसत्व मनुष्य पर विपत्तियाँ टूट पड़ती हैं। इसलिए हर बुद्धिमान को प्राण का आश्रय लेना ही चाहिए।
प्राणो वै बलम्। प्राणो वै अमृतम्। आयु: प्राण:। प्राणो वै सम्राट्।
बृहदारण्यक 5.14.4
प्राण ही बल है, प्राण ही अमृत है। प्राण की आयु है। प्राण ही राजा है।
यो वै प्राण: सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राण:।
कौ. 3.3
जो प्राण है, सो ही प्रज्ञा है। जो प्रज्ञा है, सो ही प्राण है।
यावद्ध्यस्मिन् शरीरे प्राणो वसति तावदायु:।
कौषीतकि
जब तक इस शरीर में प्राण है तभी तक जीवन है,
प्राणो वै सुशर्मा सुप्रतिष्ठान:।
शतपथ ब्राह्मण 4.4.1,14
प्राण ही इस शरीर रूपी नौका की सुप्रतिष्ठा है।
एतावज्जन्मसाफल्यं देहिनामहि देहिषु
प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेय एवाचरेत्सदा।।
प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेय एवाचरेत्सदा।।
प्राण, अर्थ, बुद्धि और वाणी द्वारा केवल श्रेय का ही आचरण करना
देहधारियों का इस देह में जन्मसाफल्य है।
या ते तनूर्वाचि प्रतिष्ठिता या श्रोत्रे या च चक्षुषि।
या च मनसि सन्तताशिवां तां कुरुमोत्क्रमी:।।
या च मनसि सन्तताशिवां तां कुरुमोत्क्रमी:।।
प्रश्रो. 2.12
हे प्राण ! जो तेरा रूप वाणी में निहित है तथा जो श्रोतों, नेत्रों तथा मन
में निहित है, उसे कल्याणकारी बना, तू हमारे देह से बाहर जाने की चेष्टा
मत कर।
प्राणस्येदं वशे सर्वं त्रिदिवे यत् प्रतिष्ठितम्।
मातेव पुत्रान् रक्षस्व श्रीश्र्च प्रज्ञां च विधेहि न इति।।
मातेव पुत्रान् रक्षस्व श्रीश्र्च प्रज्ञां च विधेहि न इति।।
प्रश्रो. 2.13
हे प्राण ! यह विश्व और स्वर्ग में स्थित जो कुछ है, वह सब आपके ही आश्रित
है। अत: हे प्राण ! तू माता-पिता के समान हमारा रक्षक बन, हमें धन और
बुद्धि दे।
सं क्रामतं मा जहीतं शरीरं, प्राणापानौ ते सयुजाविह स्ताम्।
शतं जीव शरदो वर्धमानोऽग्निष्टे गोपा अधिपा वसिष्ठ:।।
शतं जीव शरदो वर्धमानोऽग्निष्टे गोपा अधिपा वसिष्ठ:।।
अथर्व. 7-53-2
हे प्राण ! हे अपान ! इस देह को तुम मत छोड़ना। मिल-जुलकर इसी में रहना।
तभी यह देह शतायु होगी।
व्यक्ति का व्यक्तित्व ही नहीं इस सृष्टि का कण-कण इस प्राण शक्ति की ज्योति में ज्योतिर्मय हो रहा है। जहाँ जितना जीवन है, प्रकाश है, उत्साह है, आनन्द है, सौन्दर्य है वहाँ उतना ही प्राण की मात्रा विद्यमान समझनी चाहिए। उत्पादन शक्ति और किसी में नहीं केवल प्राण में ही है। जो भी प्रादुर्भाव, सृजन, अविष्कार, निर्माण, विकास-क्रम चल रहा है, उसके मूल में यही परब्रह्म की परम चेतना काम करती है। जड़ पंचतत्त्वों के चैतन्य की तरह सक्रिय रहने का आधार यह प्राण ही है। परमाणु उसी से सामर्थ्य ग्रहण करते हैं और उसी की प्रेरणा से अपनी धुरी तथा कक्षा में हैं। विश्व ब्रह्माण्ड के समस्त ग्रह, नक्षत्रों की गतिविधियाँ इसी प्रेरणा शक्ति से प्रेरित हैं। कहा भी है-
व्यक्ति का व्यक्तित्व ही नहीं इस सृष्टि का कण-कण इस प्राण शक्ति की ज्योति में ज्योतिर्मय हो रहा है। जहाँ जितना जीवन है, प्रकाश है, उत्साह है, आनन्द है, सौन्दर्य है वहाँ उतना ही प्राण की मात्रा विद्यमान समझनी चाहिए। उत्पादन शक्ति और किसी में नहीं केवल प्राण में ही है। जो भी प्रादुर्भाव, सृजन, अविष्कार, निर्माण, विकास-क्रम चल रहा है, उसके मूल में यही परब्रह्म की परम चेतना काम करती है। जड़ पंचतत्त्वों के चैतन्य की तरह सक्रिय रहने का आधार यह प्राण ही है। परमाणु उसी से सामर्थ्य ग्रहण करते हैं और उसी की प्रेरणा से अपनी धुरी तथा कक्षा में हैं। विश्व ब्रह्माण्ड के समस्त ग्रह, नक्षत्रों की गतिविधियाँ इसी प्रेरणा शक्ति से प्रेरित हैं। कहा भी है-
प्राणाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते।
प्राणेन जातानि जीवन्ति। प्राणं प्रयत्नयभिसंविशन्तीति।
प्राणेन जातानि जीवन्ति। प्राणं प्रयत्नयभिसंविशन्तीति।
तैत्तरीय/भृगुवल्ली 3
प्राण शक्ति से ही समस्त प्राणी पैदा होते हैं। पैदा होने पर प्राण से ही
जीते हैं और अन्तत: प्राण में ही प्रवेश कर जाते हैं।
सर्वाणि ह वा इमानि भूतानि प्राणमेवा-
भिसंविशन्ति प्राणमभ्युज्ज्हिते।।
भिसंविशन्ति प्राणमभ्युज्ज्हिते।।
छान्दोग्य. 1.11.5
यह सब प्राणी, प्राण में ही उत्पन्न होते हैं और प्राण में ही लीन हो जाते
हैं।
तेन संसारचक्रेऽस्मिन् भ्रमतीत्येव सर्वदा।
तदर्थं ये प्रवर्तन्ते योगिन: प्राण धारणे।।तत एवाखिला नाडी निरुद्ध चाष्टवेष्टनम्।
इयं कुण्डलिनी शक्तीरन्ध्रं त्यजति नान्यथा।।
योगी
गोरखनाथ
प्राण वायु के कारण जीव समूह इस संसार-क्रम में निरन्तर भ्रमण करता है।
योगी लोग दीर्घ-जीवन प्राप्त करने के लिए इस वायु को स्थिर करते हैं। इसके
अभ्यास से नाड़ियाँ पुन: कामादि अष्टदोष से दूषित नहीं हो पातीं। नाड़ी
शुद्ध होने पर कुण्डलिनी शक्ति अपने रन्ध्र को छोड़ देती है, अन्यथा नहीं
छोड़ती।
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